शनिवार, 20 दिसंबर 2014

कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग

12/17/2014 12:52:10 AM
कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण से लेकर जनजीवन को होने वाले नुकसानों से हम सभी परिचित हैं। पर इसके प्रयोग को लेकर जैसी सावधानी की सरकार से अपेक्षा थी वैसी कहीं देखने में नहीं आ रही है। 
परिणाम यह है कि जनस्वास्थ्य के प्रति सतर्क कई विकसित देश तो हमारे फल-सब्जियों के निर्यात पर पाबंदी लगाने जैसे कदम भी उठा रहे हैं। इसके बावजूद हमारे देश में वैसी सतर्कता और चेतना देखने को नहीं मिल रही है जैसी कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर अपेक्षित है। क्या है समस्या और कैसे हो इस का हल, इसी पर पढिए आज के स्पॉटलाइट में जानकारों की राय ...
समय रहते चेतना होगा 
( चंद्रभूषण, महानिदेशक, सीएसई) 
कीटनाशकों के प्रयोग से मनुष्य कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ सकता है। सबसे प्रमुख है - तीव्र विषाक्तता (एक्यूट प्वॉयजनिंग)। इसमें कीटनाशक प्रयोग करने वाला व्यक्ति ही इसकी चपेट में आ जाता है। हमारे देश में तो यह समस्या काफी देखने में आती है। कीटनाशक के प्रयोग से होने वाली दूसरी बड़ी बीमारी है कैंसर। विशेष रूप से खून और त्वचा के कैंसर इस कारण से काफी देखने में आते हंै। इसके अलावा श्वांस संबंधी बीमारियां और शरीर संरक्षा तंत्र के कमजोर होने की समस्या इसके कारण काफी देखने में आती है। कई बार यह नर्वस प्रणाली को चपेट में ले लेता है।

कीटों और सूक्ष्म जीवों को मारने में प्रयुक्त होने वाला कीटनाशक मूल रूप से यह जहर ही है। अगर कीटनाशकों का दुरूपयोग किया जा रहा है तो इसके बहुत गंभीर परिणाम हो सकते हैं। यह उन सभी के लिए हानिकारक होता है जो कि इसके संपर्क में आता है। किसान, कर्मी, उपभोक्ता, जानवर सभी के लिए यह नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए, कीटनाशकों का उपयोग तभी किया जाना चाहिए जबकि उनकी जरूरत हो। भारत के कुछ क्षेत्रों जैसे पंजाब, पश्चिमी उत्तरी प्रदेश, आंध्रप्रदेश से विशेषरूप से कीटनाशकों का अधिकप्रयोग करने की खबरें आई हैं।

कीटनाशकों के उपयोग का सबसे बेहतर तरीका यह है कि उनका इस्तेमाल "इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंट" के अंतर्गत किया जाए। अर्थात कीटनाशकों का प्रयोग कीट नियंत्रण के अन्य उपायों के साथ एक उपाय के रूप में किया जाए। एक मात्र उपाय के रूप में नहीं किया जाए। भारत में यह देखने में आता है कि अधिकांश लोग कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों पर निर्भर हो गए हैं। प्राय: तब भी कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाता है जबकि उनकी जरूरत ही न हो। जबकि कीटनाशकों को प्रयोग तब होना चाहिए जबकि ऎसा लगे कि फसल में कीट लगना बढ़ सकता है। इसके साथ ही गैर रासायनिक जैविक कीटनाशकों के प्रयोग को भी प्राथमिकता देने की जरूरत है।

नीम से बने कीटनाशक आज बड़ी मात्रा में बाजार में उपलब्ध हैं। कुछ फर्मोन्स आते हैं जो कीटों को अपनी तरफ खींचते हैं। इनका भी उपयोग किया जा सकता है। इसके साथ ही कीटनाशक के प्रयोग के दौरान भी यह कोशिश की जानी चाहिए कि उन कीटनाशकों का प्रयोग किया जाए जो कि अधिक विषाक्त नहीं हैं। कीटनाशक के साथ समस्या यह है कि मनुष्य इसके संपर्क में कई तरीके से आ सकता है।

कीटनाशक के प्रयोग के दौरान, फल-सब्जियों, अनाज और पानी में पहुंच चुके कीटनाशक के माध्यम से तथा कई बार तो दूध के माध्यम से भी। आशय यह कि एक बार कीटनाशक के पर्यावरण में पहुंच जाने के बाद वह कई माध्यमों से मनुष्य तक पहुंच सकता है। इसलिए कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से बचने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि इसका कम से कम उपयोग किया जाए। इसके प्रयोग में अधिक से अधिक सावधानी बरती जाए। इसमें सरकार के कृçष्ा, स्वास्थ्य और खाद्य निरीक्षण विभाग भी भूमिका निभा सकते हैं। 

जैविक खेती ही अब रास्ता

गोपी कृष्ण, वरिष्ठ पत्रकार

रासायनिक खाद और कीटनाशकों से बचाव का सिर्फ यही तरीका है कि हम जैविक खेती अपनाएं। लेकिन सच्चाई यह है कि रसायनिक खेती के लिए सरकार की ओर से तरह-तरह के प्रोत्साहन दिए जाते हैं जबकि जैविक खेती के लिए उतने प्रोत्साहन नहीं हैं। आम आदमी के स्वास्थ्य के लिहाज से हर हाल में बेहतर जैविक खेती इसी असंतुलन की वजह से रसायनिक खेती से पिछड़ी हुई है। सरकार किसानों के लिए रसायनिक खाद पर करीब 70 हजार करोड़ रूपए का अनुदान देती है। दूसरी ओर, देश में होने वाली ज्यादातर अनुसंधान रसायनिक खेती को लेकर ही होते हैं, जैविक खेती को भी अनुसंधान की आवश्यकता होती है। उसे इस तरह का सहयोग नहीं मिल रहा है।

जैविक खेती करने वाले प्रोत्साहन तो चाहते हैं लेकिन उस तरह के सीधे अनुदान के तौर पर नहीं, जिस तरह रसायनिक खेती को सीधे तौर पर दिया जाता है। उन्हें जैविक खाद की आवश्यकता होती है। इसके लिए आवश्यक उत्पाद (बायोमास) सरलता से उपलब्ध हैं। ऎसा नहीं है कि राज्य सरकार और केंद्र सरकार की ओर से जैविक खाद के उत्पादन के लिए प्रोत्साहन या अनुदान ना मिलता हो, वह मिलता तो है लेकिन यह रसायनिक खेती के मुकाबले बहुत ही कम है। यदि सरकार बिगड़ते इकोलॉजिकल सिस्टम पर चिंतित है, बिगड़ रही देश की मिट्टी की गुणवत्ता, उससे पैदा होने वाली कृषि उपज से होने वाले दीर्घकालीन आर्थिक और आमजन के स्वास्थ्य को होने नुकसान को लेकर चिंतित है और इसमें सुधार करना चाहती है तो इसके लिए सोच में बदलाव करना होगा।

जैविक खेती को प्रोत्साहन मिल सके इसके लिए पांच बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं। पहली, इस खेती का प्रचार-प्रसार करके इसे प्रोत्साहित करना होगा। दूसरी, इस क्षेत्र में अनुसंधान करने होंगे। तीसरी, आवश्यक पैसा भी इस मामले में खर्च करना होगा। चौथी बात यह कि देश में छोटे किसानों की संख्या बहुत अधिक है, उन्हें समूह में सहायता की आवश्यकता होती है। इसके लिए सरकार की ओर से सहकारी समितियां बनवाकर उन्हें जैविक खाद तैयार करने के लिए सहायता देनी चाहिए। फिर, पांचवीं महत्वपूर्ण बात यह है कि संसाधनो के इस्तेमाल को लेकर समग्र सोच तैयार करनी होगी। 

मानसिकता बदलनी होगी

जैविक खाद उत्पादन का कच्चा माल बायोमास यानी गोबर व अन्य अनुपयोगी वनस्पति की देश में कोई समस्या नहीं है। लेकिन, वर्तमान में देश में बहुत बड़ी मात्रा में गोबर का सीधे तौर पर इस्तेमाल उपले या कंडे बनाकर खाना पकाने के ईंधन के तौर पर होता है। यदि इसका इस्तेमाल गोबर गैस संयंत्र लगाने में हो तो खाना पकाने के लिए गैस के साथ, खेती के लिए खाद भी मिल जाएगी। इन सबका प्रचार-प्रसार बेहद आवश्यक है, लोगों को जानकारियां दी जानी आवश्यक हैं। लोगों की मनोदशा में बदलाव लाना होगा। आमजन को रसायनिक खाद और कीटनाशकों से पैदा होने वाली कृषि के उपयोग से होने वाली बीमारियों के बारे में जागरूक करना होगा। यदि प्राकृतिक रूप से तैयार खाद का इस्तेमाल हो तो मिट्टी की गुणवत्ता बेहतर ही रहेगी और यह लंबे समय तक बेहतर उत्पादकता के साथ उपज दे सकती है। 

खेत भी हो रहे खराब 

डॉ. एन.एस. राठौड़, पूर्व कुलपति, कृषि वि.वि., जोबनेर

हरित Rांति के दौरान कृषि उपज बढ़ाने के लिए खेती में रसायनों का इस्तेमाल बहुत तेजी के साथ बढ़ा जिसके दुष्परिणाम हमें अब देखने को मिल रहे हैं। आवश्यकता से अधिक नेट्रोजन का खाद में इस्तेमाल हुआ, विभिन्न रसायनों का कीटनाशकों के तौर पर इस्तेमाल हुआ, खरपतवार हटाने के लिए हर्बिसाइड का इस्तेमाल हुआ, आखिरकार ये सब मिट्टी में ही तो मिले। इससे एक तो हमारी मिट्टी की गुणवत्ता खराब हुई और दूसरी ओर कृषि उपज जिसे मानव ने इस्तेमाल किया, उसके शरीर पर कभी चर्म रोग तो कभी कैंसर के रूप में हमें बीमारियां देखने को मिल रही हैं। रसायनिक खाद जब मानव शरीर में जाती है तो श्वेत रक्त कोशिकाएं (डब्लूबीसी) की संख्या बढ़ जाती है, यही मानव शरीर में रक्त कैंसर की जनक हैं। 

यह तर्क अकसर दिया जाता है कि रसायनिक खाद के इस्तेमाल से उत्पादकता बढ़ती है जिसका असर कुल पैदावार और उसकी लागत पर भी आता है। किसान इसीलिए जैविक खेती से कृषि उपज से बचता है। यह तर्क आधारभूत तौर पर ही गलत है। यह हो सकता है कि किसी मिट्टी को नाइट्रोजन की जरूरत हो लेकिन उसे नाइट्रोजन पहुंचाने के लिए जरूरी तो नहीं कि रसायनिक खाद का ही इस्तेमाल किया जाए। जैविक खेती के संसाधनों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। जहां तक पैदावार के बढ़ने का सवाल है तो हो सकता है कि रसायनिक खेती से कुछ लाभ मिला हो लेकिन केवल इसी के सहारे पैदावार में इजाफा हुआ, ऎसा नहीं कहा जा सकता है। यह हमें नहीं भूलना चाहिए कि किसानों को अब उन्नत बीज, उन्नत कृषि औजार तो उपलब्ध हैं हीं, साथ ही उन्हें जानकारियां भी पहले से अधिक हैं। आज किसान अपेक्षाकृत अधिक शिक्षित है, इसका लाभ भी उसे मिलता रहा है।

रसायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल के साथ इन बातों की महत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। अब स्थिति बिल्कुल बदली हुई है। खेती योग्य मिट्टी की गुणवत्ता अत्यधिक रसायनों के इस्तेमाल से घटने लगी है। अत्यधिक रसायनों के इस्तेमाल की स्थिति को ऎसे समझा जा सकता है कि वर्ष 1950 में हम 05 करोड़ टन अनाज पैदा करते थे तब केवल 540 टन फर्टीलाइजर का इस्तेमाल कर रहे थे लेकिन अब हमारे देश में अनाज की पैदावार का स्तर 26.30 करोड़ टन के स्तर पर पहुंच गया लेकिन फर्टिलाइजर का इस्तेमाल 90 हजार टन के स्तर को पार कर रहा है। अनावश्यक रसायनिक खाद के इस्तेमाल के बाद अनाज पैदावार की लागत निकालें तो हमें इसमें मानव शरीर को होने वाली बीमारियों के इलाज पर लगने वाली लागत को भी शामिल करना ही चाहिए। 

इसके अलावा केवल मानव शरीर नहीं बल्कि पशुओं को चारे के तौर पर भी रसायनिक खाद वाला चारा ही मिलता है। इसका असर उन पर भी पड़ता है और दूध पर भी। अब जरूरत इस बात की है कि देश बायो गैस और इसके अपशिष्ट के तौर पर मिलने वाली जैविक खाद के इस्तेमाल पर ध्यान दे। बायो गैस तैयार करने की प्रçRया में जो खाद मिलती है, उस पर मक्खी-मच्छरों का हमला भी नहीं होता। उसमें आवश्यकता के मुताबिक 1.5 फीसदी नाइट्रोजन और 0.75 फीसदी पी-2 ओ-5 और के-2 ओ-5 भी मिल जाता है। इससे अधिक की तो हमारी मिट्टी को आवश्यकता भी नहीं है। यह खाद गोबर के अलावा अनुपयोगी वनस्पति, खरपतवार, पत्तों आदि से तैयार की जा सकती है।
घर की छत पर ही उगाओ अपनी सब्जी
स्पॉटलाइट डेस्क
सब्जियां चाहे मंडी से खरीदें या फिर घर के सामने बेचने आए ठेले वाले से लेकिन इस बात की गारंटी के किसी के पास नहीं है कि वह रसायनिक खाद और कीटनाशकों से मुक्त या फिर नाले में उगाई गई सब्जियां नहीं खरीदी जा रही हैं। सारे संदेहों के बावजूद मन मारकर सब्जियां खरीदी जाती हैं और पकाई जाती हैं। 

यदि मन में इच्छा हो तो कुछ हद तक ऎसी सब्जियों से निजात पाई जा सकती है, घर में ही सब्जियों को उगाकर। ऎसे बहुत से लोग हैं जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं, घर में महंगी सब्जियां भी ला सकते हैं। इसके बावजूद वे मकान में किचन गार्डन बना लेते हैं। जयपुर के मानसरोवर इलाके में योगेश ने करीब 150 वर्ग गज क्षेत्र वाले मकान में किचन गार्डन बना रखा है। इसके लिए उन्होंने घर के बाहर की जमीन का इस्तेमाल नहीं किया बल्कि अपने घर की छत और बालकनी का इस्तेमाल किया है। उन्होंने गमलों में और थैलों में ही मिट्टी भरकर किचन गार्डन तैयार कर किया। फिलहाल घर में ही उन्होंने मेथी, पालक, टमाटर, बैंगन, मटर, मिर्च और धनिया उगा रखा है। शहर में इस तरह कई लोगों ने घर की छत और बालकनी पर किचन गार्डन बना रखा है।

चेन्नई और कोयम्बटूर में तो सरकार किचन गार्डन किट के लिए पचास प्रतिशत अनुदान भी दे रही है। बेगलूरू, मुम्बई, दिल्ली, गुड़गांव आदि शहरों में ऎसी अनेक संस्थाएं हैं जो घरों की छतों पर किचनगार्डन के लिए अभियान चला रही हैं।
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