शनिवार, 12 सितंबर 2015

कीटनाशकों के जहर का कसता शिकंजा?

  कीटनाशकों के जहर का कसता शिकंजा?

Author: 
 डॉ. सुनील शर्मा
Source: 
 हम सम्वेत, 28 फरवरी 2011
कीटनाशक से उजड़ती कृषिकीटनाशक से उजड़ती कृषिभारत सरकार के कृषि विभाग द्वारा अभी हाल में जारी रिपोर्ट के अनुसार देश भर के विभिन्न हिस्सों में फल,सब्जियों,अण्डों और दूध में कीटनाशकों की उपस्थिति पर किए गए अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि इन सभी में इनकी न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से काफी अधिक मात्रा पाई गई है।इस रिपोर्ट के अनुसार सत्र 2008 और 2009 के बीच देश के विभिन्न हिस्सों से एकत्र किए गए खाद्यान्न के नमूनों का अध्ययन देश के 20 प्रतिष्ठित प्रयोगशालाओं में किया गया तथा अधिकांश नमूनों में डी.डी.टी.,लिण्डेन और मानोक्रोटोफास जैसे खतरनाक और प्रतिबंधित कीटनाशकों के अंश इनकी न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से अधिक मात्रा में पाए गए हैं। इलाहाबाद से लिए गए टमाटर के नमूने में डी.डी.टी.की मात्रा न्यूनतम् से 108 गुनी अधिक पाई गई है,यहीं से लिए गए भटे के नमूने में प्रतिबंधित कीटनाशक हेप्टाक्लोर की मात्रा न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से 10 गुनी अधिक पाई गई है, उल्लेखनीय है कि हेप्टाक्लोर लीवर और तंत्रिकातंत्र को नष्ट करता है। गोरखपुर से लिए सेब के नमूने में क्लोरडेन नामक कीटनाशक पाया गया जो कि लीवर, फेफड़ा, किडनी, आँख और केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को नुकसान पहुँचाता है। अहमदाबाद से एकत्र दूध के प्रसिद्ध ब्रांड अमूल में क्लोरपायरीफास नामक कीटनाशक के अंश पाए गए है यह कीटनाशक कैंसरजन्य और संवेदीतंत्र को नुकसान पहुँचाता हैं।

मुम्बई से लिए गए पोल्ट्री उत्पाद के नमूने में घातक इण्डोसल्फान के अंश न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से 23 गुनी अधिक मात्रा में मिले हैं। वही अमृतसर लिए गए फूल गोभी के नमूने में क्लोरपायरीफास की उपस्थिति सिद्ध हुई है। असम के चाय बागान से लिए गए चाय के नमूने में जहरीले फेनप्रोपथ्रिन के अंश पाए गए जबकि यह चाय के लिए प्रतिबंधित कीटनाधक है। गेहू और चावल के नमूनों में ऐल्ड्रिन और क्लोरफेनविनफास नामक कीटनाशकों के अंश पाए गए हैं ये दोनों कैंसर कारक है। इस तरह स्पष्ट है कि कीटनाशकों के जहरीले अणु हमारे वातावरण के कण-कण में व्याप्त हो गए हैं। अन्न,जल,फल,दूध और भूमिगत जल सबमें कीटनाशकों के जहरीले अणु मिल चुके हैं और वो धीरे-धीरे हमारी मानवता को मौत की ओर ले जा रहें हैं। ये कीटनाशक हमारे अस्तित्व को खतरा बन गए हैं। कण-कण में इन कीटनाशकों की व्याप्ति का कारण है आधुनिक कृषि और जीवन शैली। कृषि और बागवानी में इनके अनियोजित और अंधाधुंध प्रयोग ने कैंसर, किडनी रोग, अवसाद और एलर्जी जैसे रोगों को बढ़ाया है। साथ ही ये कीटनाशक जैव विविधता को खतरा साबित हो रहे हैं। आधुनिक खेती की राह में हमने फसलों की कीटों से रक्षा के लिए डी.डी.टी,एल्ड्रिन,मेलाथियान एवं लिण्डेन जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उपयोग किया इनसे फसलों के कीट तो मरे साथ ही पक्षी, तितलियाँ फसल और मिट्टी के रक्षक कई अन्य जीव भी नष्ट हो गए तथा इनके अंश अन्न, जल, पशु और हम मनुष्यों में आ गए।

हम देखें कि कीटनाशक इस तरह हमारी खाद्य श्रृंखला में पैठ बनाते हैं -सामान्यत: कीटनाशक जैसे कि डी.डी.टी. पानी में कम घुलनशील है जबकि वसा और कार्बनिक तेलों में आसानी से विलेय है। प्राय: ये देखा जाता है कि जब इन्हें फसलों पर छिड़का जाता है तो इनके आसपास के जलस्रोतों में रहने वाले जलीय जीवों की मौत हो जाती हैं तथा जीवित बचे प्राणियों और वनस्पति में भी इनके अंश संचित हो जाते हैं जब ये जीव एवं वनस्पति किसी अन्य प्राणी द्वारा खाए जाते हैं तो ये उसके शरीर की वसा में संचित हो जाते हैं। खाद्य श्रृखंला के प्रत्येक पद में डी.डी.टी. की सांद्रता और विषैलापन बढ़ता जाता हैं। तरकारियों और फलों पर जब इनका छिड़काव या लेपन किया जाता है तो ये रसायन इनकी पतली सतह पर चिपक जाते हैं और परत में उपस्थित छोटे-छोटे छिद्रों के जरिए अंदर पहुँच जाते है और फिर पशुओं और मनुष्यों में। भूसे और पशु आहार के जरिए दूध में पहुँचते हैं। इन रसायनों के अणु लम्बे समय तक विघटित नहीं होते है एक बार उपयोग में आने के बाद लम्बे समय तक मिट्टी और वातावरण में मौजूद रहते हैं जैसे डी.डी.टी.पांच वर्ष तक, लिण्डेन सात वर्ष तक और आर्सेनिक के अणु अनिश्चित समय तक प्रकृति में मौजूद रहते हैं। इस तरह कीटनाशक हमारी प्रकृति को नष्ट करने के लिए हर समय क्रियाशील रहते हैं।

कीटनाशकों का विनाशक प्रभाव हमारे किसानों की इनके उपयोग की प्रविधि प्रति अज्ञानता की वजह से भी बढ़ रहा हैं, देश के अनेक हिस्सों में इस संदर्भ में किए गए अध्ययन एक बात और स्पष्ट हुई है कि हमारे किसान कीटनाशकों के उचित उपयोग के मामले में अधिकतर किसान अनिभिज्ञ हैं और वो इनका मनमाना उपयोग कर रहें हैं जैसे मोनोक्रोटोफास नामक कीटनाशक केवल कपास में उपयोग के लिए अनुशंसित है जबकि इसका अधिकतर उपयोग बागवानी फसलों के लिए किया जा रहा हैं। देश में हर साल सैकड़ों किसानों की मौत इन्हें फसलों में छिड़काव के दौरान ही हो जाती है। कीटनाशक विक्रेताओं और कृषि विभाग की जिम्मेदारी बनती है कि वो किसानों को कीटनाशकों के उचित उपयोग के विषय में शिक्षित करें परन्तु प्रशासनिक लापरवाही के चलते न तो कीटनाशक विक्रेता यह कार्य कर रहे हैं और न ही किसान कल्याण विभाग के कर्ताधर्ता। हमारी जीवनशैली में मच्छरमार,काकरोच मार कीटनाशकों का उपयोग भी बढ़ता जा रहा है इनके स्प्रे और धुँआ का प्रभाव भी अंतत: हमें ही नुकसान पहुँचा रहा हैं। हमारे चारों कीटनाशकों के जहर का आवरण बन चुका है इससे प्रतीत होता है कि आज कीटनाशक बिल्कुल निर्वाध हमारी प्रकृति को मौत की नींद में ले जाने की तैयारी में लीन है। अगर हम मानवता के प्रति तनिक भी जिम्मकदार हैं तो इनसे बचने के उपायों पर मनन करें।

इस खबर के स्रोत का लिंक: 
 http://humsamvet.org.in

कैंसर परोसते खेती में जहरीले रसायन

कैंसर परोसते खेती में जहरीले रसायन

Author: 
 अनिल प्रकाश
Source: 
 दैनिक ट्रिब्यून, जूलाई 2010
सूखे की मार से तबाह बिहार के कृषि क्षेत्र में फिर एक बड़ा हादसा हो गया है। मक्का यहां की प्रमुख फसल है। इस बार भी बड़े पैमाने पर मक्के की फसल लगाई गई थी। जिन किसानों ने पूसा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित बीज या अपने परम्परागत बीजों से खेती की थी उनके पौधों में दाने भरपूर हैं। लेकिन लगभग दो लाख एकड़ भूमि में टर्मिनेटर सीड (निर्वंश बीजों) का प्रयोग किया गया। इसके पौधे लहलहाये जरूर लेकिन उनमें दाने नहीं निकले। किसानों को कम्पनियों के एजेंटो ने बताया था कि वे उनके बीज लगायें तो पैदावार तिगुनी होगी। गरीबी की मार झेल रहे किसान उनके झांसे में आ गये। जिन किसानों ने चैलेंजर पायोनियर-7, पायोनियर-92, लक्ष्मी डी काल्ब-198 तथा पिनकोल जैसे बीजों का प्रयोग किया उनके पौधों में दाने नहीं आये। किसानों ने इन बीजों को 180 रुपए से 285 रुपए प्रति किलोग्राम की दर पर खरीदा था। खाद, बीज सिंचाई, मेहनताना सब मिलाकर प्रति एकड़ लगभग दस हजार रुपये की लागत आयी थी। यानी 25 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत। अस्सी प्रतिशत किसानों ने महाजनों से पांच रुपये प्रति सैकड़ा/महीना की दर पर कर्ज लेकर खेती की थी। अब मुसीबत के मारे किसान कहां जायें? सरकार ने प्रति हेक्टेयर दस हजार रुपये (यानी प्रति एकड़ सिर्फ चार हजार रुपये) मुआवजा देने की घोषणा की है। यह रकम खेत में लगी लागत के आधे से भी कम है। मुआवजा तो लागत के अतिरिक्त फसल की संभावित उपज के आधार पर दिया जाना चाहिए था। जो किसान दूसरों से बटाई पर जमीन लेकर खेती कर रहे थे उनको तो एक पैसा भी नहीं मिलेगा।

2003 में भी बिहार में ऐसा ही हादसा हुआ था। तब मोसांटो कंपनी के कारगिल-900 नामक टर्मिनेटर (निर्वंश) बीजों के प्रयोग के कारण फसल में दाने नहीं आये थे। 3 साल पूर्व कुछ इलाकों में गेहूं की फसल के साथ भी ऐसा ही हुआ था। गेहूं के दाने काले हो गये थे।

पायोनियर, डुपोंट नामक अमेरिकी कंपनी की सब्सिडियरी है। डी काल्ब, मोन्सेंटो आदि कम्पनियों के टर्मिनेटर बीजों के सहारे बीजों से उत्पादित मक्का, गेहूं, टमाटर या कपास को खेत में दुबारा उगाया नहीं जा सकता। इन कम्पनियों ने अपने बीज रिसर्च इंस्टीच्यूट स्थापित किये हैं। हाल ही में पायोनियर डुपोंट ने बंगलौर में मक्का अनुसंधान केंद्र खोला है।

आखिर इन कम्पनियों को किसने यह अधिकार दिया कि इस प्रकार किसानों को अंधेरे में रखकर बड़े पैमाने पर अपने बीजों का ट्रायल करें? इन कम्पनियों को इस अपराध के लिए कानूनी घेरे में लिया जाना चाहिए और उनसे किसानों के हर्जाने की भरपायी करानी चाहिए। उन पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए।

सन् 2002 में मध्यप्रदेश में किसानों को प्रलोभन देकर दस हजार एकड़ में बी.टी. कपास टर्मिनेटर बीज बनाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां मूलत: रसायन बनाने वाली कम्पनियां हैं। डुपोंट सीएफसी (क्लोरोफ्लोरो कार्बन) बनाने वाली कंपनी रही है। यह रसायन ओजोन परस को नष्ट करने के लिए जिम्मेदार रहा है। बाद में इस रसायन का विकल्प ढूंढा गया। वियतनाम युद्ध के समय जंगलों और फसलों को जला डालने के लिए जिन रसायनों का उपयोग अमेरिकी वायुसेना ने किया था उसे मोन्सेंटो ने ही बनाया था। इन बड़ी कम्पनियों की वैश्विक आय का आधा खरपतवार नाशकों तथा अन्य रसायनों से आता है। आज दुनिया भर के जैव संवर्धित (जी.एम.) बीजों के व्यापार का अधिकांश इन्हीं कंपनियों के हाथों में है। ये कम्पनियां राजनेताओं, नौकरशाहों और कृषि वैज्ञानिकों बड़े पैमाने पर आर्थिक लाभ पहुंचाकर अपने पक्ष में फैसले करवाने के लिए कुख्यात हैं। अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, यूरोप सभी जगहों पर निर्वंश बीजों का विरोध हो रहा है। यूरोप के कई देशों में इन पर प्रतिबंध भी लगाया गया है। मानव स्वास्थ्य पर जी.एम. बीजों से उत्पादित खाद्य सामग्री के बुरे प्रभावों की आशंकाओं के कारण अमेरिका में जी.एम. मक्का का उत्पादन काफी घट गया है। इस प्रकार के अनाजों का उपयोग मुख्यत: एथनॉल या स्पिरिट बनाने में किया जाने लगा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति के निवास (व्हाइट हाउस) के बगीचे में जैविक खेती होती है। अमेरिका तथा यूरोप में जैविक कृषि 20 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ रही है। हमारा देश अमेरिका या यूरोप के देशों को जो चाय, अंगूर, आम या लीची निर्यात करता है वह जैविक तरीके से उत्पादित होती है। जहरीले रसायनों के प्रयोग से उत्पादित खाद्य पदार्थों को वे वापस लौटा देते हैं। फिर हम रासायनिक खादों, जहरीले कीटनाशकों तथा निर्वंश बीजों को छूट देकर अपनी खेती और मानव स्वास्थ्य को खतरे में क्यों डाल रहे हैं? खेती में जहरीले रसायनों के प्रयोग से पंजाब में कैंसर तथा अन्य घातक बीमारियों को तेजी से प्रसार हुआ है। वहां की खेती ऊसर होती जा रही है। अनाज का कटोरा कहे जाने वाले इस प्रदेश में किसानों की हालत बिगड़ती जा रही है और वे आत्महत्या के लिए विवश हो रहे हैं।

आज दुनिया भर में जैव विविधता और टिकाऊ खेती की बात चल रही है। अमेरिका, यूरोप, आस्ट्रेलिया आदि के ठंडे प्रदेश जैव विविधता के मामले में गरीब हैं। जबकि एशिया, अफ्रीका के गर्म के देशों में हजारों प्रकार की वनस्पति, अनाज और जीव-जन्तुओं की भरमार है। बड़ी-बड़ी बीज कंपनियों की लोलुप नजरें इन पर लगी हैं। एक ओर ये जी.एम. बीज बनाकर, उनका पेटेंट करा रहे हैं और दूसरी ओर बीजों को एकाधिकार कायम करने के लिए निर्वंश बीजों के द्वारा हमारे पारम्परिक बीजों के भंडार तथा हमारी जैव विविधता को नष्ट कर रहे हैं। जिन खेतों में निर्वंश बीजों का प्रयोग होता है उसके आसपास की दूसरी फसलों पर भी इनके पराग फैल जाते हैं और उन फसलों के बीजों की प्रकृति को नष्ट करते हैं।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

कीटनाशक और रसायन

कीटनाशक और रसायन

Author: 
 सचिन कुमार जैन
Source: 
 सचिन राइट सन ब्लॉग
हिमालय और उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाकों जहां अब तक इन रसायनों का उपयोग नहीं होता है, वहां इससे हो सकता है कि खेती के लाभ में वृद्धि कम होती हो किन्तु यह हर जमीन, पानी और हवा को प्रदूषित कर रहा है इसलिये इनका उपयोग रोकना होगा अत: स्वाभाविक है कि खेती के कीटनाशकों के सन्दर्भ में भी पारम्परिक उपायों से बेहतर विकल्प कोई और नहीं हो सकता है।
पूरे विश्व में कृषि रोगों और खरपतवार को कीटनाशकों से खत्म करके अनाज, सब्जियाँ, फल, फूल और वनस्पतियों की सुरक्षा करने का नारा देकर कई प्रकार के कीटनाशक और रसायनों का उत्पादन किया जा रहा है; किन्तु इन कीटों, फफूंद और रोगों के जीवाणुओं की कम से कम पांच फीसदी संख्या ऐसी होती है जो खतरनाक रसायनों के प्रभावों से बच जाती है और इनसे सामना करने की प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेती है। ऐसे प्रतिरोधी कीट धीरे-धीरे अपनी इसी क्षमता वाली नई पीढ़ी को जन्म देने लगते हैं जिससे उन पर कीटनाशकों का प्रभाव नहीं पड़ता है और फिर इन्हें खत्म करने के लिये ज्यादा शक्तिशाली, ज्यादा जहरीले रसायनों का निर्माण करना पड़ता है। कीटनाशक रसायन बनाने वाली कम्पनियों के लिये यह एक बाजार है। इस स्थिति का दूसरा पहलू भी है। जब किसान अपने खेत में उगने वाले टमाटर, आलू, सेब, संतरे, चीकू, गेहूँ, धान और अंगूर जैसे खाद्य पदार्थों पर इन जहरीले रसायनों का छिड़काव करता है तो इसके घातक तत्व फल एवं सब्जियों एवं उनके बीजों में प्रवेश कर जाते हैं। फिर इन रसायनों की यात्रा भूमि की मिट्टी, नदी के पानी, वातावरण की हवा में भी जारी रहती है। यह भी कहा जा सकता है कि मानव विनाशी खतरनाक रसायन सर्वव्यापी हो जाते हैं। इस प्रक्रिया में जो भोजन हम करते हैं। जो फल हम खाते हैं, पानी पीते हैं, श्वांस लेते हैं, इन सभी के जरिए वास्तव में हम अनजाने में ही जहर का सेवन भी करते हैं।

यह जहर, पसीने, श्वांस, मल या मूत्र के जरिए हमारे शरीर से बाहर नहीं निकलता है अपितु शरीर की कोशिकाओं में फैलकर लाइलाज रोगों और भांति-भांति के कैंसर को जन्म देता है। यह हर कोई जानता है कि यदि व्यक्ति आधा लीटर खरपतवार नाशक पी लेता है तो परिणाम केवल एक ही हो सकता है, दर्दनाक और दुखदायी मौत। ठीक यही स्थिति हर व्यक्ति के साथ संभव है, परन्तु कुछ समय बाद, क्योंकि हर व्यक्ति एक ही खुराक में इस जहर का सेवन नहीं कर रहा है अपितु हर सेब, हर टमाटर और हर रोटी और सब्जी के साथ जहर की थोड़ी-थोड़ी मात्रा उसके शरीर में प्रवेश कर रही है। आरम्भ में हम सामना करते हैं सिरदर्द, त्वचा समस्या, अल्सर और फिर कैन्सर का। कई पश्चिमी देशों और भारत के कई राज्यों में इन कीटनाशकों ने लाखों लोगों को स्थाई रूप से बीमार बनाया है जिनमें से ज्यादातर मितली (नॉसी), डायरिया, दमा, साईनस, एलर्जी, प्रतिरोधक क्षमता में कमी और मोतियाबिंद की समस्या का सामना कर रहे हैं। इसी का प्रभाव है कि कई मातायें अपने बच्चों को स्तनपान के जरिए कीटनाशक रसायनों के जहरीले तत्वों का सेवन करवा रही हैं जिससे बच्चों में शारीरिक विकलांगता के स्थाई लक्षण नजर आ रहे हैं। इस प्रदूषण से महिलाओं में स्तन कैंसर की वृद्धि हो रही है, उनके गर्भाशय तथा मासिक धर्म की नियमितता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उनकी रासायनिक अंत: स्रावी ग्रंथियां भी शिकार हो रही हैं। जबकि पुरुषों की प्रजनन क्षमता में निरंतर कमी आ रही है। पर्यावरण शोध से प्राप्त निष्कर्षों से पता चलता है कि शरीर में ज्यादा भाग में जहरीले रसायन पहुँच जाने के फलस्वरूप विगत तीन वर्षों में भारत में गिद्धों की संख्या में 90 फीसदी की कमी आ गई है।

इस तरह के उत्पादन करने वाले ज्यादातर बड़े व्यावसायिक संस्थान संयुक्त राज्य अमेरिका से संबंध रखते हैं- जैसे डयूपां, अपजोन, फाइजर और ल्यूब्रीजोल। केवल डयूपां और उसकी सहायक संस्थायें 1.75 करोड़ पाउंड प्रदूषक रोज छोड़ते हैं, 1986 में इसने 34 करोड़ पाउंड जहरीले रसायन अमरीका की वायु, मिट्टी और पानी में डाले। यह कम्पनी क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.) का उत्पादन करने वाली सबसे बड़ी कम्पनी है। यह रसायन वातावरण की ओजोन परत में क्षय का सबसे बड़ा कारण है जिसकी वजह से कम से कम 4 लाख व्यक्ति त्वचा कैंसर से प्रभावित होंगे और मोतिया बिंद के मामले डेढ़ करोड़ बढ़ जायेंगे। इससे फसलों को भी गंभीर नुकसान होता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि घातक जहर को छोटे-छोटे अक्षरों में पैक पर चेतावनी लिखकर बेचा जा रहा है यह जानते हुये भी कि रासायनिक कीटनाशक मानव जीवन और प्रकृति को विनाश की ओर ले जा रहे हैं। जिन पदार्थों का उपयोग हम कीटों के विनाश के लिए कर रहे हैं, वह मानव के जीवन के लिये भी खतरा हो सकते है और तो और उन रसायनों के उपयोग की विधि में यह भी लिखा जाता है कि इस रसायन का छिड़काव करते समय नाक एवं मुंह को कपड़े से, आंखों को मास्क से और हाथों को दस्तानों से ढक लें, यदि रसायन त्वचा से स्पर्श कर जाये तो तुरन्त दो-तीन बार साबुन से उसे धोयें और शीघ्र ही डाक्टर से इलाज करवायें.......... क्यों? ......... क्योंकि यह एक जानलेवा जहर है। जो कीट के लिये इतना घातक हो सकता है। उसका पेड़-पौधों, नदियों, फलों, फूलों और हवा पर क्या प्रभाव पड़ता होगा। वास्तव में यह दुखदायी तथ्य है कि धनोपार्जन में व्यस्त यह कीटनाशक रसायन उत्पादन करने वाले संस्थान हमें सीधे जहर के सम्पर्क में न आने की चेतावनी दे रहे हैं और यही जहर सब्जियों, अनाज, फलों और पानी के जरिए हमारे शरीर में पहुंचाया जा रहा है।

भोपाल में यूनियन कार्बाइड के जरिए घटी गैस त्रासदी की घटना हमारे वैचारिक तंत्र को झकझोर देती है। यूनियन कार्बाइड एक कीटनाशक रसायन बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनी है जिससे 1984 में मिथाइल आइसोसाइनेट नामक गैस का रिसाव हुआ था और अब तक इससे प्रभावित 24 हजार लोगों की मौत हो चुकी है क्योंकि उक्त गैस में फास्जीन, क्लोरोफार्म, हाइड्रोक्लोरिक एसिड जैसे तत्वों का मिश्रण था। यह आज भी भोपालवासियों के शरीर में धीमे जहर के रूप में मौजूद है। फास्जीन एक ऐसा तत्व है जो तरल और गैस के स्वरूप में पाया जाता है जिसका उपयोग रासायनिक हथियारों के निर्माण में होता रहा है और विश्व युद्ध के दौरान हिटलर ने इसको माध्यम बनाकर लाखों सैनिकों को मौत के घाट उतारा था। फास्जीन वायु से साढ़े तीन गुना ज्यादा भारी होती है जिससे श्वांस तंत्र बुरी तरह प्रभावित होता है। पूर्व में युद्ध के दौरान हुये इसके प्रयोग से तीन लक्षणों का विश्लेषण किया जा चुका है, पहला- आंखों में जलन, गले में जलन और त्वचा पर सरसराहट, दूसरा- श्वांस में ज्यादा तकलीफ, दम घुटना और तीसरा- मृत्यु। फास्जीन की थोड़ी सी मात्रा भी मृत्यु का कारण हो सकती है और भोपाल में गैस पीड़ितों में इन तीनों लक्षणों को साफ देखा गया है। इससे व्यक्ति फुफ्फस वात विकार से प्रभावित हो जाता है और धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ता है।

खेती में प्रयोग होते कीटनाशकखेती में प्रयोग होते कीटनाशकअब प्रश्न यह है कि ऐसी खतरनाक और भयंकर परिणाम होने के बावजूद जहरीले रसायनों का उपयोग खेती में प्रयोग होने वाले कीटनाशक रसायन बनाने में क्यों किया जाता है ........ क्योंकि ज्यादातर कीट अब हल्के जहर से प्रभावित ही नहीं होते हैं और इनका सामना करने के लिये उन्होंने प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। अत: फास्जीन जैसी गैस का उपयोग भी पेस्ट कन्ट्रोल रसायनों में होने लगा है। डीडीटी को पूरे विश्व में प्रतिबंधित किया जा चुका है किन्तु मलेरिया नियंत्रण के नाम पर आज भी भारत में इसका उपयोग हो रहा है और बीएचसी की खपत भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। पचास के दशक में डीडीटी, बीएचसी और मैथालियोन का वार्षिक उपयोग दो हजार टन था जो आज बढ़कर एक लाख टन तक पहुंच चुका है। एल्यूमिनियम फास्फाइड, जो अनाज संग्रह के लिये सर्वाधिक प्रभावशाली पदार्थ माना जाता है, हमारे भोजन में जाने के बाद जहरीला असर करता है। आल इण्डिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण से एल्यूमीनियम फास्फाइड के ही जहरीले असर के 114 उदाहरण रोहतक (हरियाणा) में, 55 उत्तरप्रदेश में और 30 हिमाचल प्रदेश में मिले थे। कीटनाशक दवाओं के छिड़काव वाले गेहूं के आटे की पूरियां खाने से उत्तर प्रदेश के बरेली जिले में करीब डेढ़ सौ व्यक्ति मौत के शिकार हो गये थे जबकि कालीडोल नामक कीटनाशक के छिड़काव वाली चीनी और गेहूं के आटे के उपयोग से केरल में 106 लोगों की मृत्यु हो गई थी।

भारत में बड़े गर्व के साथ ऐसे रसायनों का उपयोग हो रहा है जो पूरी दूनिया में प्रतिबंधित हैं जैसे डीडीटी, बीएचसी, एल्ड्रान, क्लोसडेन, एड्रीन, मिथाइल पैराथियोन, टोक्साफेन, हेप्टाक्लोर तथा लिण्डेन। इसका परिणाम यह है कि एक औसत भारतीय अपने दैनिक आहार में स्वादिष्ट भोजन के साथ 0.27 मिलीग्राम डीडीटी भी अपने पेट में डालता है जिसके फलस्वरूप औसत भारतीय के शरीर के ऊतकों में एकत्रित हुये डीडीटी का स्तर 12.8 से 31 पीपीएम यानी विश्व में सबसे ऊंचा हैं। इसी तरह गेहूं में कीटनाशक का स्तर 1.6 से 17.4 पीपीएम, चावल में 0.8 से 16.4 पीपीएम, दालों में 2.9 से 16.9 पीपीएम, मूंगफली में 3.0 से 19.1 पीपीएम, साग-सब्जी में 5.00 और आलू में 68.5 पीपीएम तक डीडीटी पाया गया है। महाराष्ट्र में डेयरी द्वारा बोतलों में बिकने वाले दूध के 90 प्रतिशत नमूनों में 4.8 से 6.3 पीपीएम तक डिल्ड्रीन भी पाया गया है। खेती में रासायनिक जहर के उपयोग के कारण नदियों का पानी भी जहरीला हो गया है। कर्नाटक के हसन जिले के तालाबों के पीने के पानी में तो 0.02 से लेकर 0.20 पीपीएम तक कीटनाशक पाये गये हैं जबकि कावेरी नदी के पानी में 1000 पीपीबी (पाट्रस पर बिलियन) बीएचसी और 1300 पीपीबी पेरीथियोन पाया गया है। अब रासायनिक कीटनाशकों के प्रभावों पर हमें तर्कों के नहीं अपितु अनुभवों के आधार पर चर्चा करनी चाहिये। हिमालय और उत्तरप्रदेश के पहाड़ी इलाकों जहां अब तक इन रसायनों का उपयोग नहीं होता है, वहां इससे हो सकता है कि खेती के लाभ में वृद्धि कम होती हो किन्तु यह हर जमीन, पानी और हवा को प्रदूषित कर रहा है इसलिये इनका उपयोग रोकना होगा अत: स्वाभाविक है कि खेती के कीटनाशकों के सन्दर्भ में भी पारम्परिक उपायों से बेहतर विकल्प कोई और नहीं हो सकता है।

हरियाणा में कीटनाशकों के दुष्प्रभाव



रासायनिक खेती: पैरों से व्हीलचेयर तक का सफर

Author: 
 डॉ. कश्मीर उप्पल
Source: 
 सर्वोदय प्रेस सर्विस
‘लोक लहर फाउन्डेशन’ ने गांवों के बच्चों को चण्डीगढ़ प्रेस क्लब के सामने प्रस्तुत किया था। यह बच्चे रासायनिक खेती के प्रभाव से अनेक बीमारियों से ग्रसित थे। इन बच्चों की मांग थी कि उन्हें खिलौने नहीं व्हीलचेयर चाहिए, ताकि वे चल सकें।
जापान में आये भूकम्प, सुनामी और परमाणु विकिरण के खतरे ने पूरी दुनिया को रक्षात्मक मुद्रा में ला खड़ा कर दिया है। जापान ने विकिरण प्रभावित क्षेत्र में भोजन सामग्री और पीने के पानी के सेवन पर तत्काल प्रतिबंध लगा दिया था। अब भारत सहित विश्व के अनेक देशों ने जापान से आयातित खाद्य सामग्री पर प्रतिबंध लगा दिया है। विश्व सहित भारत में भी इस विषय पर बहस शुरु हो गयी है कि परमाणु योजनाओं की स्वतंत्र और विश्वसनीय जांच हो। रूस में गहरे समुद्र में किये गये प्रयोगों से सिद्ध हुआ है कि रेडियो-एक्टिव पदार्थ क्लेंकटन, शैवाल और बहुत से समुद्री प्राणियों से पुनः मनुष्य के पास पहुंच जाते हैं। चूंकि एक जीव दूसरे जीव का भोजन है, अतः हवा, पानी और वनस्पति सभी प्राणियों को प्रभावित करते हैं। इस विकिरण का प्रभाव अनन्तकाल तक चलता रहता है।

ई.एफ. शुमाखर के अनुसार ‘‘आधुनिक मनुष्य अपने को प्रकृति का अंग नहीं अनुभव करता।’’ प्रकृति से संघर्ष में वह भूल जाता है कि इस संघर्ष में वह जीत भी जाये तो भी नुकसान उसी का होगा।’’ आधुनिक कृषि प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित करने का सबसे बड़ा क्षेत्र बन गई है। हमें समय रहते रासायनिक कृषि उत्पादन से जुड़े खतरों की भी चिंता करना होगी। बड़े पैमाने पर उत्पादन और मार्केटिंग की आधुनिक सभ्यता पर होने वाले विध्वंस और संहार ही मनुष्य को चिंतित करते हैं। कृषि क्षेत्र देश के कोने-कोने तक फैला हुआ है। अतः दूर के क्षेत्रों में हुई दुर्घटना के प्रति लोगों की संवेदना घनीभूत नहीं हो पाती है। हम किस कम्पनी का जूता और कपड़ा पहनते हैं यह तो हम जानते हैं पर किस किसान का पैदा किया गया अनाज खाते हैं यह समझ नहीं पाते हैं।

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 1997 से 2008 के बीच 1,99,132 किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के अनुसार देश के 40 प्रतिशत किसान खेती छोड़कर शहरों की शरण में जाना चाहते हैं। सरकारें किसानों की अपेक्षाओं का ध्यान नहीं रखती हैं, क्योंकि सरकारों को कृषि के सवालों पर जनता के विरोध का भय नहीं रहता है।

भारत दुनिया में कृषि रसायनों का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। यहां रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों से जमीन की गुणवत्ता और उर्वरता घट रही है। इनके दुष्प्रभावों से मनुष्य, पशु-पक्षी, पानी और पर्यावरणीय जीवन असुरक्षित हो रहा है । इन कीटनाशकों से खेती के लिए फायदेमंद जीव-जंतुओं के नष्ट हो जाने और मानव स्वास्थ्य को नुकसान की घटनाएं आम हो गयी हैं।

यूनियन कार्बाइड भोपाल में 2-3 दिसम्बर 1984 की मध्यरात्रि को घटी गैस त्रासदी भी एक ऐसी घटना भी जिसका संबंध कृषि उत्पादन से था। इस त्रासदी से हमने कोई सबक नहीं सीखा, क्योंकि सारी बहस मुआवजा राशि और वारेन एंडरसन की गिरफ्तारी पर केन्द्रित थी।

यूरोप में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वायुमण्डल स्थित नाइट्रोजन से कुछ विस्फोटक पदार्थ तैयार करने में लगी फैक्ट्रियों को युद्ध बंद हो जाने के बाद किसानों के लिए नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटेशियम की खाद बनाने में लगा दिया गया था। इसके पीछे यह कल्पना काम कर रही थी कि भूमि की संरचना तत्वों में आयी कमी को रासायनिक पदार्थों से पूरा किया जा सकता है। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक सर अलबर्ट हॉवर्ट के अनुसार आने वाले वर्षों में रासायनिक खाद औद्योगिक युग की सबसे बड़ी विफलताओं में गिनी जाएगी।

कृषि मंत्री शरद पवार ने राज्यसभा में यह स्वीकार किया है कि 67 कीटनाशक जो पूरी दुनिया में प्रतिबंधित और नियंत्रित हैं, भारत में मुक्त रूप से उपयोग किये जा रहे हैं। एक प्रश्न के उत्तर में कृषि मंत्री ने बताया कि एन्डोसल्फान सहित 13 कीटनाशकों को नियंत्रित आयात की अनुमति दी गयी है।

केरल में एन्डोसल्फान के इस्तेमाल से किसानों का स्वास्थ्य खराब हो गया था, इसलिए केरल सरकार ने इसके उपयोग और बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है। केरल में जो मजदूर कीटनाशक छिड़काव का काम करते हैं उन्हें छिड़काव के कारण होने वाली बीमारी पर प्रतिदिन की मजदूरी का लगभग एक-चैथाई व्यय करना पड़ता है।

अनाज का कटोरा कहे जाने वाले राज्यों में रासायनिक खेती से जो तस्वीर बन रही है वह बड़ी भयावह है। दक्षिण पंजाब में अबोहर से बीकानेर चलने वाली ट्रेन नंबर 339 को लोगों ने ‘कैंसर-एक्सप्रेस’ नाम दे दिया है। इस टेशन से प्रतिदिन लगभग 100 कैंसर मरीज इलाज के लिए पंजाब से बीकानेर जाते हैं। फिरोजपुर में काम करने वाले एक गैर सरकारी संगठन ‘लोक लहर फाउन्डेशन’ ने गांवों के बच्चों को चण्डीगढ़ प्रेस क्लब के सामने प्रस्तुत किया था। यह बच्चे रासायनिक खेती के प्रभाव से अनेक बीमारियों से ग्रसित थे। इन बच्चों की मांग थी कि उन्हें खिलौने नहीं व्हीलचेयर चाहिए, ताकि वे चल सकें। पाकिस्तान की सीमा से लगे फिरोजपुर जिले के रासायनिक खेती जनित कई बीमारियों से पीडि़त ग्रामीणों की मांग है कि यदि हिन्दुस्तान में हमारी चिंता करने वाला कोई नहीं है तो हमें पाकिस्तान को सौंप दो।

पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री ने विधानसभा में स्वीकार किया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में 2001 से 2009 के मध्य 23,427 लोग कैंसर से पीडि़त पाये गये थे, जिनमें से 16,730 लोगों की मृत्यु हो चुकी है। पंजाब के मुख्यमंत्री के रिलीफ फण्ड के साथ स्कूल हेल्थ स्कीम से 69 लाख रुपये पीडि़तों में वितरित किये गये थे, जिससे स्पष्ट होता है कि कैंसर पीडि़तों में बड़ी संख्या में स्कूली बच्चे भी थे।

अन्तर्राष्ट्रीय फूड वर्कर यूनियन ने भी भारत में एन्डोसल्फान पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। उसका कहना है कि विश्व भर में अकेले भारत में सर्वाधिक कृषि मजदूर, कृषि एवं बागान में कार्यरत हैं। रासायनिक खेती का सबसे अधिक नकारात्मक और बुरा प्रभाव कृषि मजदूरों पर ही पड़ता है। प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम.एस. स्वामीनाथन के अनुसार सरकार रसायन उर्वरक उद्योगों को कई लाख करोड़ की आर्थिक सहायता देती है। इस कारण कृषि में आवश्यकता से अधिक रासायनिक उर्वरकों का उपयोग होता है।

अन्तर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान ने हाल ही में यह स्वीकार किया है कि धान पर कीटनाशकों का इस्तेमाल करना धन और समय की बर्बादी है। इस बात को फिलीपींस, वियतनाम और बांग्लादेश के किसानों ने बिना कीटनाशकों के पहले से अधिक उत्पादन प्राप्त कर सिद्ध किया है। आन्धप्रदेश के 18 जिलों में भी किसान बिना कीटनाशक के फसल उगा रहे हैं। इससे पैदावर में कोई कमी नहीं आयी है।

मध्यप्रदेश के आदिवासी जिले झाबुआ में तो ग्रामीण रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग छः से आठ गुना तक अधिक मात्रा में कर रहे हैं। विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लार्ड कीन्ज़ का विचार है कि ‘‘आने वाले समय में कम से कम सौ साल तक हमें अपने आपको और प्रत्येक व्यक्ति को इस भुलावे में रखना होगा कि जो उचित है, वह गलत है और जो गलत है वह उचित है, क्योंकि जो गलत है, वह उपयोगी है-जो उचित है वह नहीं।’’

डां. कश्मीर उप्पल शासकीय महाविद्यालय, इटारसी में वाणिज्य के प्राध्यापक रहे हैं।