कीटनाशकों के जहर का कसता शिकंजा?
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हम सम्वेत, 28 फरवरी 2011मुम्बई से लिए गए पोल्ट्री उत्पाद के नमूने में घातक इण्डोसल्फान के अंश न्यूनतम स्वीकृत मात्रा से 23 गुनी अधिक मात्रा में मिले हैं। वही अमृतसर लिए गए फूल गोभी के नमूने में क्लोरपायरीफास की उपस्थिति सिद्ध हुई है। असम के चाय बागान से लिए गए चाय के नमूने में जहरीले फेनप्रोपथ्रिन के अंश पाए गए जबकि यह चाय के लिए प्रतिबंधित कीटनाधक है। गेहू और चावल के नमूनों में ऐल्ड्रिन और क्लोरफेनविनफास नामक कीटनाशकों के अंश पाए गए हैं ये दोनों कैंसर कारक है। इस तरह स्पष्ट है कि कीटनाशकों के जहरीले अणु हमारे वातावरण के कण-कण में व्याप्त हो गए हैं। अन्न,जल,फल,दूध और भूमिगत जल सबमें कीटनाशकों के जहरीले अणु मिल चुके हैं और वो धीरे-धीरे हमारी मानवता को मौत की ओर ले जा रहें हैं। ये कीटनाशक हमारे अस्तित्व को खतरा बन गए हैं। कण-कण में इन कीटनाशकों की व्याप्ति का कारण है आधुनिक कृषि और जीवन शैली। कृषि और बागवानी में इनके अनियोजित और अंधाधुंध प्रयोग ने कैंसर, किडनी रोग, अवसाद और एलर्जी जैसे रोगों को बढ़ाया है। साथ ही ये कीटनाशक जैव विविधता को खतरा साबित हो रहे हैं। आधुनिक खेती की राह में हमने फसलों की कीटों से रक्षा के लिए डी.डी.टी,एल्ड्रिन,मेलाथियान एवं लिण्डेन जैसे खतरनाक कीटनाशकों का उपयोग किया इनसे फसलों के कीट तो मरे साथ ही पक्षी, तितलियाँ फसल और मिट्टी के रक्षक कई अन्य जीव भी नष्ट हो गए तथा इनके अंश अन्न, जल, पशु और हम मनुष्यों में आ गए।
हम देखें कि कीटनाशक इस तरह हमारी खाद्य श्रृंखला में पैठ बनाते हैं -सामान्यत: कीटनाशक जैसे कि डी.डी.टी. पानी में कम घुलनशील है जबकि वसा और कार्बनिक तेलों में आसानी से विलेय है। प्राय: ये देखा जाता है कि जब इन्हें फसलों पर छिड़का जाता है तो इनके आसपास के जलस्रोतों में रहने वाले जलीय जीवों की मौत हो जाती हैं तथा जीवित बचे प्राणियों और वनस्पति में भी इनके अंश संचित हो जाते हैं जब ये जीव एवं वनस्पति किसी अन्य प्राणी द्वारा खाए जाते हैं तो ये उसके शरीर की वसा में संचित हो जाते हैं। खाद्य श्रृखंला के प्रत्येक पद में डी.डी.टी. की सांद्रता और विषैलापन बढ़ता जाता हैं। तरकारियों और फलों पर जब इनका छिड़काव या लेपन किया जाता है तो ये रसायन इनकी पतली सतह पर चिपक जाते हैं और परत में उपस्थित छोटे-छोटे छिद्रों के जरिए अंदर पहुँच जाते है और फिर पशुओं और मनुष्यों में। भूसे और पशु आहार के जरिए दूध में पहुँचते हैं। इन रसायनों के अणु लम्बे समय तक विघटित नहीं होते है एक बार उपयोग में आने के बाद लम्बे समय तक मिट्टी और वातावरण में मौजूद रहते हैं जैसे डी.डी.टी.पांच वर्ष तक, लिण्डेन सात वर्ष तक और आर्सेनिक के अणु अनिश्चित समय तक प्रकृति में मौजूद रहते हैं। इस तरह कीटनाशक हमारी प्रकृति को नष्ट करने के लिए हर समय क्रियाशील रहते हैं।
कीटनाशकों का विनाशक प्रभाव हमारे किसानों की इनके उपयोग की प्रविधि प्रति अज्ञानता की वजह से भी बढ़ रहा हैं, देश के अनेक हिस्सों में इस संदर्भ में किए गए अध्ययन एक बात और स्पष्ट हुई है कि हमारे किसान कीटनाशकों के उचित उपयोग के मामले में अधिकतर किसान अनिभिज्ञ हैं और वो इनका मनमाना उपयोग कर रहें हैं जैसे मोनोक्रोटोफास नामक कीटनाशक केवल कपास में उपयोग के लिए अनुशंसित है जबकि इसका अधिकतर उपयोग बागवानी फसलों के लिए किया जा रहा हैं। देश में हर साल सैकड़ों किसानों की मौत इन्हें फसलों में छिड़काव के दौरान ही हो जाती है। कीटनाशक विक्रेताओं और कृषि विभाग की जिम्मेदारी बनती है कि वो किसानों को कीटनाशकों के उचित उपयोग के विषय में शिक्षित करें परन्तु प्रशासनिक लापरवाही के चलते न तो कीटनाशक विक्रेता यह कार्य कर रहे हैं और न ही किसान कल्याण विभाग के कर्ताधर्ता। हमारी जीवनशैली में मच्छरमार,काकरोच मार कीटनाशकों का उपयोग भी बढ़ता जा रहा है इनके स्प्रे और धुँआ का प्रभाव भी अंतत: हमें ही नुकसान पहुँचा रहा हैं। हमारे चारों कीटनाशकों के जहर का आवरण बन चुका है इससे प्रतीत होता है कि आज कीटनाशक बिल्कुल निर्वाध हमारी प्रकृति को मौत की नींद में ले जाने की तैयारी में लीन है। अगर हम मानवता के प्रति तनिक भी जिम्मकदार हैं तो इनसे बचने के उपायों पर मनन करें।
इस खबर के स्रोत का लिंक:
http://humsamvet.org.in
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